आपाधापी में दौड़ती यह जिंदगी,
मुखौटो की शक्ल लिए घुमती-फिरती मिल जाती हैं,
आस पास के चौराहों पर।
हकीकत क्या हैं?
कभी कभी सोचती हू मकसद क्या हैं?
वक़्त के हिसाब से बदलते चहरे,
अलग-अलग रंगों में घुले मिले से,
अटपटे से अंदाज में घूरते दिख जाते हैं,
बाजार में सजी दुकानो के आस-पास,
कुछ अभिलाषाए खरीदते हुए,
कुछ सपने बेचते हुए,
कभी नसीब का,
कभी तरकीब का,
कभी वर्चस्व का,
व्यवसाय चल रहा हैं।
कोई प्रतियोगिता हों शायद,
और फिर सोचती हू, जरूरत क्या हैं?
आखिर हकीकत क्या हैं?
-रत्ना
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